- सन्दीप कुमार
धर्म की मासूमियत को खपत करने वाली साम्प्रदायिकता की राहों को उजागर करते रहे। राही मासूम रजा ने अपने उपन्यासों द्वारा व्यक्ति की कहानी न कहकर समय की कहानी कहते हैं। आधा गाँव एवं टोपी शुक्ला उपन्यास में राही मासूम रजा साम्प्रदायिकता की सच्ची और ब्यौरों से भरी हुई मार्मिक तस्वीर खींचते हैं। राही जी उन लेखकों में से हैं जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता-संग्राम को अपने दिल से महसूस किया था। उन्होंने भी समता, विकास, एकता आदि के स्वप्न देखे थे, परन्तु साम्प्रदायिकता ने उनके स्वप्नों को धूमिल कर दिया।
आजादी से पहले हिन्दुस्तान का मुसलमान धार्मिक दृष्टि से अल्पसंख्यक होने पर भी वतन की दृष्टि से बराबरी का हकदार था। गाँवों में मुसलमान जमींदार और किसान, हिन्दू जमींदारों और किसानों की तरह ही, औपनिवेशिक शासन के अभिशापों के शिकार थे। जमींदार चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, समान रूप से किसानों का द्यशोषण करते थे। सामन्ती ठसक, मूँछ की लड़ाई, मुकदमेबाजी और शादी-ब्याह में या अन्यत्र द्यशानौष्शौकत के प्रदर्शन में हिन्दू-मुसलमान का कोई फ़र्क नहीं था। एक मुसलमान किसान के करीब मुसलमान जमींदार नहीं था अपितु हिन्दू किसान था क्योंकि जमींदार दोनों के लिये द्यशोषक था उनका हितैषी नहीं। उनके सुख-दुःख में काम आने वाला उनका मित्र किसान ही था जमींदार में धर्म का कोई बेजा दखल न था। हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के सामाजिक और धार्मिक समारोहों में प्रेम के साथ शामिल होते थे। आजादी की लड़ाई भी उन्होंने मिलकर ही लड़ी थी। पर आजादी मिलने की पूर्व संध्या में धूर्त राजनीतिज्ञों और धार्मिक नेताओं ने मजहब को कौम का आधार बनाकर हिन्दुओं और मुसलमानों को दो कौमों में बाँट दिया और देश का विभाजन हो गया। यह विभाजन भारतीय सन्दर्भ में बीसवीं सदी की सबसे बड़ी दर्दनाक घटना है। इस विभाजन में केवल देश का विभाजन नहीं हुआ। विभाजन की दर्दनाक घटना के जिम्मेदार कारक व विभाजन का जनता पर पड़ने वाला प्रभाव राही मासूम रजा के उपन्यासों में स्पष्ट झलकता है जिन्हें पढ़कर हमारा हृदय कांप उठता है। इनमें विभाजन से लेकर बंटवारे की कीमत तक का मर्मस्पर्शी चित्रण है।
साम्प्रदायिकता की वैसाखियों का सहारा लेकर देश विभाजन की जो कड़ी रची गई, वह वास्तव में सिहरन पैदा कर देने वाली है। साम्प्रदायिक विचारधारा पर आधारित विभाजन केवल भौगोलिक विभाजन नहीं था, बल्कि यह तो मानवीय भावना का विभाजन था, सांस्कृतिक व धार्मिक विभाजन था।
इस साम्प्रदायिकता का उदय आधुनिक राजनीति के उदय से ही जुड़ा हुआ है। इससे पहले की राजनीति में उच्च वर्ग का वर्चस्व था और जनसाधारण उपेक्षित था। जनता विद्रोह भी करती थी तो राजनीतिक व्यवस्था से बाहर और उसका विद्रोह सफल होने पर उसके नेताओं को पुराने शासक वर्गों में शामिल कर लिया जाता था। उदाहरण के लिये जवाहरलाल नेहरू ने १९३६ में लिखा, यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि भारत में साम्प्रदायिकता एक परवर्ती घटना है, जिसका जन्म हमारी आँखों के सामने ही हुआ है।''१ अंग्रेजों की राजशक्ति ने साम्प्रदायिकता का ही साथ दिया।
साम्प्रदायिकता तो एक उन्माद है, जो संकीर्ण विचारों से उत्पन्न होती है, जो समाज के स्वार्थी लोगों की राय से, उनकी साजिशों का रूप धारण कर अफवाह के रूप में समाज में फलती-फूलती रहती है। सी०जी० शाह का कहना है, साम्प्रदायिक प्रचार के प्रभाव में आकर लोग अपने द्यशोषण, अत्याचार और पीड़ा के वास्तविक स्रोत को पहचानने में असमर्थ हो जाते हैं और उसके एक दम में साम्प्रदायिक कारण की कल्पना कर लेते हैं।''२
राही मासूम रजा ने समकालीन परिवेश और परिस्थितियों को देखकर अनुभूति व सच्चाई के सहारे श्रेष्ठ साहित्य का सृजन किया। साम्प्रदायिकता के कारुणिक मंजर को उठाया व अपने उपन्यासों के माध्यम से समाज को सच को प्रदर्शित करने का प्रयास किया। विभाजन के दौरान मानव की पीड़ा, चीख व दर्द को महसूस किया और बड़ी ही वेदना के साथ इसे पाठकों के साथ बांटा। मानव मूल्यों व नैतिक मूल्यों में आई गिरावट को महसूस किया और अपने उपन्यासों में उसे पूरी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया।
उनका आधा गाँव उपन्यास साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक ऐसा सृजनात्मक प्रहार है जो दुनिया में कहीं भी राष्ट्रीयता के हक में जाता है। यह शिया मुसलमानों की जिन्दगी पर लिखा गया पहला उपन्यास है। इसमें विभाजन से पहले और बाद की जिन्दगी को उभारा गया है। तन्हाई और टूटन का इसमें एक विशेष ऐतिहासिक सन्दर्भ मिलता है। विभाजन के समय गंगौली के मुसलमानों की मानसिकता को स्पष्ट किया है जो अपने गाँव को हिन्दुस्तान में ही रखना चाह रहे थे। उनके अनुसार, नफ़रत और खौफ़ की बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज मुबारक नहीं हो सकती।२ विभाजन की राजनीति स्वार्थी तत्त्वों की चाल थी। सामान्य जनता विभाजन नहीं चाहती थी क्योंकि वह जानती थी कि पाकिस्तान आकिस्तान पेट भरने का खेल है।४ इसी तरह टोपी शुक्ला उपन्यास में भी साम्प्रदायिक जहर के फैलने से व्यक्ति के अकेले पड़ जाने की बड़ी भयावह तस्वीर अंकित मिलती है। टोपी शुक्ला में राही मासूम रजा ने हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों को पूरी सच्चाई के साथ पेश करते हुए बुद्जिीवियों के सामने एक प्रश्नचिह्न खड़ा किया है कि टोपी शुक्ला जैसे मूल्यवान चरित्र इस आजाद भारत में एक कारुणिक अन्त के लिए ही आख़िर क्यों अभिशप्त हैं और वही क्यों रोज-रोज अकेले पड़ते जा रहे हैं - मौलाना बलभद्र नारायण टोपी शुक्ला की शख्सियत बिखर गई। तीन टुकड़े जम्मू चले गये और चौथा टुकड़ा अलीगढ़ में रह गया और उस चौथे टुकड़े को खुद उसकी आधी, पूरी परछाइयों ने घेर लिया।''५
राही मासूम रजा ने हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों का मार्मिक रूप में चित्रण किया है। इन सम्बन्धों की समस्या को उसके सही सन्दर्भ में देखने और चित्रित करने का एक साहसपूर्ण प्रयास किया है। साम्प्रदायिकता के लिए यह जरूरी भी है। मुझे हिन्दुओं से नफरत है लेकिन द्यशंकर से मैं प्यार करता हूँ, क्योंकि यह बिलकुल आदमी के नाप के हैं। बेवकूफ।६ इफ्फन और टोपी की दोस्ती के बीच धर्म आड़े नहीं आता।
इस तरह राही ने हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्ध को केवल चिन्तन की खिड़की से ही नहीं देखा अपितु अनुभव और संवेदना की नली से भी देखा है। राही की भाषा का भी अपना एक खास अन्दाज, रंग और अदा है। ÷आधा गाँव' में भोजपुरी क्षेत्र में प्रचलित गालियों के प्रयोग ने उस जीवन को उसकी पूरी जीवन्तता में प्रस्तुत कर दिया है। वे स्वयं टोपी शुक्ला की भूमिका में कहते हैं- उसका गाँव में बेशुमार गालियां थी। मौलाना टोपी शुक्ला में एक भी गाली नहीं है - परन्तु शायद यह पूरा उपन्यास एक गन्दी गाली है और मैं यह गाली डंके की चोट पर बक रहा हूँ। यह उपन्यास अश्लील है - जीवन की तरह।७
अतः हम कह सकते हैं कि साम्प्रदायिकता की खाई से निपटने का रास्ता कठिन हो सकता है लेकिन असंभव नहीं। भारत में साम्प्रदायिकता सौ सालों से भी अधिक समय से चली आ रही है लेकिन अब हमें वह समाधान ढूँढ़ना ही होगा, जिससे मानवीय भावना का विभाजन होने से बच सके। इस समाधान में राही मासूम रजा के उपन्यास आधा गाँव व टोपी शुक्ला अंधेरे में किरण नजर आते हैं। उनमें चित्रित हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों की मार्मिकता समाज में आपसी भाईचारे, नैतिक मूल्यों व मानवीय मूल्यों का आदर करते हुए सद्भाव स्थापित करती है। वे यही सन्देश देते हैं कि- अगर हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में लड़ाई हुई तो यह दो मुल्कों की लड़ाई होगी, दो मजहबों की नहीं।८ राही जी एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहाँ साम्प्रदायिकता का नाम भी न हो। साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले और मानवता को घृणित समझने वाले निर्मम व निर्दयी मनुष्य न हों, जहाँ सुख व शांति हो, प्रेम हो, समता हो, समानाधिकार हो, एकता हो, भाईचारा हो।
सन्दर्भ-
१. विपिन्न चन्द्र, मृदुला मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी, सुचेता महाजन, क.न.पनिकर, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, पृ० ३२२।
२. वही, पृ० ३२५
३. राही मासूम रजा, आधा गाँव, पृ० ७९
४. वही, पृ० ९३
५. राही मासूम रजा, टोपी शुक्ला, पृ० ९६
६. वही, पृ० ४९
७. वही, पृ० ५
८. वही, पृ० ७६
1 comment:
नव वर्ष की आप और आपके समस्त परिवार को शुभकामनाएं....
नीरज
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